जब दर-दर पर जाकर ठोकर मिली,
सूनसान राहोँ पर भटकना ही अच्छा लगा।
फूल बनकर जब मैँ घिरा मालियोँ से,
ते हवा मेँ छिटकना ही अच्छा लगा।

दोस्ती के लिए बढे हाथ,
मेरी गर्दन तक पहुँच गये
झूठ का बनाकर सौदागर मुझे
मौकापरस्त निकल गये।

मुझे अब महफिलेँ ठुकराना ही अच्छा लगा
नजरेँ चुराना ही अच्छा लगा
सबसे दूर जाना ही अच्छा लगा।
कल हल्की धूप और पतझड शुरु हो गया। धीरे-धीरे बसन्ती हवा की खुशबू आने लगी थी पर आज झमाझम बारिश से मौसम सावन जैसा हो गया।पर पहले जैसी गलन नहीँ है। मौसम सामान्य ही बना रहे तो अच्छा है,वरना बोर्ड परिक्षा की तैयारी कर रहे छात्रोँ को थोडी असुविधा जरुर होगी।
गंगा जमुना के जिस विशाल मैदान मेँ हम रहते हैँ वहाँ हर मौसम हमारे दरवाजे खटकाता है,पर जब कभी मौसम का भयावह रुप हम देखते हैँ तो सोचते हैँ आखिर यह मौसम क्योँ आता है। जैसे मेरे लिए ठण्ड के मौसम का हर पल परेशान करता है।मैँने कभी इस मौसम मेँ खुद को सहज नहीँ पाया वहीँ गर्मी के मौसम का अधिक से अधिक लाभ मेरे द्वारा उठाया जाता है।सबसे बडी समस्या मेरी कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता है, जो दिन प्रति दिन मुझमेँ ठण्ड के प्रति नफरत के लिए मजबूर करती है। खैर मैँ कोशिश करता हुँ इस ओस,कोहरा, पाला के परिवार से घुलने मिलने की।

पिंजडे मेँ भगवान के दर्शन

आज दशहरा का त्यौहार है लोग अलग अलग अर्थ मेँ इसे मनाते हैँ और अलग अलग तरीके से मनाते हैँ।कुछ तरीकोँ का मुझे सीधा अर्थ समझ मेँ ही नहीँ आता जैसे कुछ ब्राह्मण और क्षत्रिय परिवारोँ मेँ कुछ गोबर के छोटे छोटे उपलोँ के ऊपर तरोई या लौकी के फूल चिपकाकर उनकी पूजा की जाती है। आज के दिन कटनास को देखना बडा ही शुभ माना जाता है । बहेलिया कटनास को पिँजडे मेँ पकड कर ऊपर से कपडा ढककर लाता है और कुछ आटा या रुपए लेकर दर्शन करवाता है। मेरे ये पूछे जाने पर की बाहर जाकर पिँजडे मेँ बन्द चिडिया को देखना क्योँ जरुरी है ,मुझे बताया गया कि देवता होते हैँ।मैँने कहा तो ये पिजडे मेँ क्योँ बन्द है,इसका जवाब देने के बजाय बाहर से कटनास लाकर अन्दर मुझे कमरे मेँ ही दर्शन कराए गए।बार बार वो अपनी चोँच पिँजडे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा था और बडी ध्यान से ऐसे देख रहा था जैसे पूछ रहा हो मैँने किसी का क्या बिगाडा।मेरे बस मेँ होता तो उस सुन्दर पक्षी को तुरन्त आजाद कर देता।मगर मैँ बस उसे छूकर और प्रणाम करके ही रह गया।ये बात तो बिल्कुल सही है कि इस प्रकृति मेँ ही ईश्वर है,पेड्.पशु,और पक्षियोँ के रुप मेँ मगर हमने वो वातावरण खो दिया है जिसमेँ स्वतंत्र रुप से विचरण करते हुए इनका दर्शन कर सकेँ। ईँट,गिट्टी के जंगलोँ मेँ पिँजडे मेँ होँगे भगवान के दर्शन?

अनुशासन का महत्व

आप जब खुद को ही अनुशासनहीन समझने लगते हैँ और लगातार गलतियाँ करते चले जाते हैँ तो आपको यह अहसास भी होने लगता है कि आपने बहुत कुछ खो दिया है और आने वाले समय मेँ खो देँगे। पर यह छण बहुत विचित्र होता है क्योँकि यहाँ से कुछ सुधरे हुए कदम आपको अर्श तक पहुँचा सकते हैँ या विश्वास की कमी और श्रेष्ठता के प्रति अरुचि आपको फर्श पर ला कर पटक सकती है। कुल मिलाकर अनुशासन स्वँय का स्वंय पर नियंत्रण है अर्थात आपके जीवन और दिनचर्या का संविधान,नीतिगत तथ्योँ और आवश्यकताओँ के साथ आपके लिए।यह आपको स्वंय पर गर्व करने का अवसर देता है और घमंड की स्थिति मेँ पहुँचने नहीँ देता।यह कोई चाबुक नहीँ बल्कि ल्क्ष्मण रेखा है जो की आपको कर्त्तव्योँ और नीति के दायरे मेँ रखे। तो यह विचार करना हमारे लिए आवश्यक है कि हम स्वंय को अनुशासन मेँ रखेँ जिससे हमारा जीवन महानता को प्राप्त हो।

मोमोज

बडा चौराहा से सिनेमा चौराहा वाली रोड पर दो चार ऐसे शक्स खडे दिख जाएँगे जिनकी शकल देखकर ही पता लग जाएगा कि ये इस शहर के नहीं हैँ,शायद पूर्वोत्तर के होँ।मगर बहुत साफ हिन्दी बोलते हैँ। वो एक बहुत ही खास तरह का व्यंजन परोसते हैँ जिसका नाम है मोमोज। ये मुख्यत: इसे ठेले पर रख कर बेचते हैँ और एक कडवी लाल चटनी डाल के देते हैँ। मोमोज के बारे मेँ कुछ दिन पहले ही पता चला।बहुत लोगोँ मेँ इसके बारे मेँ चर्चा करते सुना था। कुछ लोग तो कह रहे थे कि इसमेँ अण्डा होता है,कुछ कह रहे थे पनीर होता है।बहरहाल कल स्वाद चखा। सफेद रंग का देखने मेँ मोदक जैसा लग रहा था। लाल चटनी डालकर खाया तो लगा कि दूर के ढोल सुहावने थे। ऐसा कुछ खास स्वाद जुबान को नहीँ लगा कि दुबारा खाने का मन हो।बीस रुपए मेँ आपको छह: मोमोज मिलते हैँ
जब कभी आप अपने चारोँ ओर गंदगी देखते हैँ और उसे दूर कर पाने की क्षमता नहीँ रखते तो आप स्वंय को दोषी मानने लगते हैँ अथवा आप आँख बंद रखकर अपना काम करना चाहते हैँ।कभी हम ये भी सोचते हैँ कि सुधार लाने के लिए मैँ अकेले पहल कैसे करुँ अथवा मैँ ही क्योँ करुँ। जो इन्सान इन सवालोँ के जवाब पा लेता है वो कुछ तो कर गुजरता है समाज के लिए।

तो क्या माओवादी बन जाएँगे सवर्ण?

ये जातिगत आरक्षण वो स्थिति ला देगा जब सवर्ण जातियाँ माओवादी बन जाएँगी। फिर वहीँ से जाति प्रथा का अंत हो सकता है। लेकिन इससे पहले जातिवाद की दीवारेँ बुद्दिजीवियोँ के मन मेँ आ जाएँगी। वैचारिक क्रान्ति के बजाय हिंसक क्रान्ति से जातिप्रथा का अन्त होगा? जाति प्रथा का अन्त कौन चाहता है? कोई पार्टी तो नहीँ, शायद इसीलिए इसके अन्त को लेकर कभी कोई नीति नहीँ बनी। पर स्थितियाँ बदलेँगी,कुछ अलग ही अन्दाज मेँ।